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फ़रवरी, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

'बाज़ार में सब नंगे हैं'

एक समय था जब समाज में बिकाऊ लोगों को बड़ी खराब नज़र से देखा जाता था। जो बिक जाते थे वो उस पर पर्दा करते फिरते थे। सबसे ज्यादा डर इस बात का होता था कि लोगों को किसी भी सूरत में इस बात की जानकारी न हो। बल्कि ये शर्त रखी जाती थी कि इसके बारे में किसी को पता नहीं चलना चाहिए। और अगर पता चला तो फिर खैर नहीं। गवाह भी इस बात को उसी समय दफना देते थे। समय बदला समाज बदला। कहते हैं परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। समाज में तमाम परंपराएं विखंडित हुईं। समझदारों ने उन परंपराओं को मानने वालों को पिछड़ा और गंवार की संज्ञा दी। इसी देखा-देखी में लोग एडवांस कहलाने की होड़ में जुट गए। बस क्या था। सारी परिभाषाएं बदल गईं। नब्बे के दशक में ग्लोबलाइजेशन की ऐसी मार पड़ी कि हर संबंध में अर्थ घुस गया। जीवन औऱ मृत्यु को छोड़कर हर चीज पैसे के तराजू पर चढ़ गई। खरीरदार की तूती बोलने लगी। वो चौड़ा होकर धूमने लगे। अपने दम खम पर किसी को भी नंगा करने की बोली बोलने लगे। अभी दो दिन पहले किस क़दर खरीरदारों ने क्रिकेट खिलाड़ियों को नंगा किया-इसको दुनिया ने लाइव देखा। वाह मज़ा आ गया। वर्षों की मेहनत और लगन को एक झटके में न

मीडिया का राखी प्रेम

न्यूज़रूम में हर कोई गदगद। मजा आ गया। क्या ख़बर हाथ लगी है। टीआरपी तो पक्का मिलेगी। छा गए गुरु। मैदान मार लिया। इस बार नंबरदार चैनलों से हमारी टीआरपी भी बहुत पीछे नहीं रहेगी। एक अनुभवी पत्रकार ने कहा राखी सावंत हमेशा से टीआरपी देती रही है। राखी टीआरपी माता है। दूसरे ने टोका-नहीं नहीं माता कहकर माताओं का अपमान। तीसरे ने कहा-अरे क्या बात करते हो, राखी को माता कहकर आपने राखी का अपमान किया है। इसके लिए आपको भरे न्यूजरूम में माफी मांगनी पड़ेगी। सब लोग जोर से हंस पड़े। दरअसल राखी सावंत ने निहायत ही फूहड़ तरीके से अपने पिछलग्गू बॉयफ्रेंड अभिषेक के साथ मीडिया का मजाक उड़ाया। राखी और अभिषेक ने मीडिया को कालिख पोतते हुए सबको खूब बेवकूफ बनाया। वैलेंटाइन डे से पहले दोनों ने बकायदा मीडिया में खबर पहुंचवाई की उनकी दोस्ती टूट गई। खबरों में आगे रहने वाले चैनलों ने दोनों का फोनो इंटरव्यू भी चलाया। वाह-वाही भी लूटी। और वैलेंटाइन डे के दिन नेशनल मीडिया के सामने दोनों की दोस्ती फिर से पुख्ता हो गई। वाह क्या दोस्ती है। कैमरे के लिए सबकुछ चलता है। लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कोई औऱ नहीं मीडिया ही है। उनके मुंह

कहां भटक रहा तेरा 'हंसा'

90 के दशक के बाद साहित्य में विधाओं की सारी सीमाएं ध्वस्त हो गई। उपन्यास, संस्मरण, यात्रा वृतांत और कहानियों में कोई बाहरी दीवार नहीं रही। हर विधा एक दूसरे में समाहित होकर नया अर्थ पाने की कोशिश में है। लेकिन साहित्य में दो परंपराएं हमेशा से बनी रही हैं। चाहे आदिकाल का साहित्य रहा हो, भक्ति काल का या फिर रीति काल का। एक खेमा सत्ता विरोधी साहित्यकारों का रहा है और एक दूसरा भाट कवियों का। खूब वाहवाही की और बदले में तमाम सुख सुविधाएं मिलीं। ऐसा नहीं कि आधुनिक काल में इस परंपरा में कोई कमी आई। बल्कि उत्तरआधुनिकता के बाद दूसरी परंपरा में असमान रुप से वृद्धि हुई। उसी का एक जीता जागता और हर तरह से परिपूर्ण है उदाहरण 'हंस' पत्रिका का जनवरी अंक। हंस पत्रिका का जनवरी अंक खास तौर से समर्पित है दलित साहित्य के लिए। बाबा साहेब के जन्म दिन को ध्यान में रखते हुए संपादक मंडल ने सही समय चुना। ज़ाहिर है 90 के बाद दलित साहित्य और स्त्री विमर्श पर लगातार काम हो रहा है। अच्छा भी है। इस लिहाज से हंस का दलित साहित्य का अंक देखकर अच्छा भी लगा। लेकिन जैसे-जैसे उसका पढ़ना शुरु किया, एकदम से समझ आ गया कि