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अगस्त, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

"मोहल्ला" के अविनाश (नए ब्लागर्स के पालनहार)

नए ब्लागर्स के पालनहार। उन्हें मंच देने वाले। उनकी आवाज को एक मंच देने वाले। यशवंत के भड़ास से नफरत करने वाले पर नए ब्लागर्स की भड़ास को अहमियत देने वाले---अविनाश। मोहल्ला ब्लागर्स चलाने वाले अविनाश। एनडीटीवी में बड़े पद पर काम करने वाले अविनाश। टेलीविजन के पुराने पत्रकार अविनाश। हिंदी के सबसे पुराने हिंदी ब्लागर्स में से एक अविनाश। मुझे उम्मीद है अब आप लोगों के जेहन में अविनाश के 'मोहल्ला' की छवि उभर गई होगी। रवीश के साथ एक अलग मोहल्ला चलाने वाले अविनाश ने अच्छा किया कि एक नए पत्रकार की स्क्रिप्ट को अपने ब्लाग पर रखा। न तो आजतक मेरी अविनाश से मुलाकात हुई है और न ही नए पत्रकार अनिल यादव से। पर अविनाश को एक बात जरूर कहना चाहता हूं। टेलीविजन के लिए स्क्रिप्ट लिखने के लिए उसके साथ सपोर्टिंग विजुल का होना जरूरी है। लफ्फाजी और संपादकीय लिखने की गुंजाइश कम से कम टेलीविजन में कम रहती है। इसके लिए अखबार की नौकरी अच्छी है। कम से कम अविनाश से ऐसी उम्मीद मैं नहीं करता। अविनाश को ऐसे युवा पत्रकारों को एक बार जरूर समझाना चाहिए। एक बात और पत्रकार बनने का मतलब ये नहीं कि किसी को कभी भी गाली द

राजेश जोशी और आज के कवि

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बच्‍चे काम पर जा रहे हैं हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे? क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं सारी रंग बिरंगी किताबों को क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं सारे मदरसों की इमारतें क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन खत्‍म हो गए हैं एकाएक तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में? कितना भयानक होता अगर ऐसा होता भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल कवि राजेश जोशी की यह कविता और लंबी है। लेकिन इन पंक्तियों में विकासशील देश की असलियत है। भले ही डेवलप्मेंट सिस्टम के लिए माहिर माने जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अफनी पीठ थपथपाए। सोनिया गांधी विकास के सारे आंकड़े दुनिया के सामने रखें। लेकिन राजेश जोशी की ये पंक्तियां अकाट्य है। कुछ दिन पहले कवि राजेश जोशी को साक्षात सुनने का मौका मिला। जोशी जी ने तमाम कविताएं सुनाईं। कविता के जरिए अपने अनुभव सुनाए। मैं हिल गया। सच को इतनी आसानी से

तानाशाह मुशर्रफ का अंत

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पाकिस्तान टीवी पर पूर्व जनरल परवेज मुशर्रफ को रोते हुए पूरी दुनिया ने देखा। घड़ियाली आंसुओं का मानों सैलाब ला दिया। लेकिन पाकिस्तान की जनता पर कोई खास फ़र्क नहीं पड़ने वाला था। लोगों के दिल पर उभरे गहरे जख्मों पर इन घड़ियाली आंसुओं का असर नहीं हुआ। एक बार फिर से जिंदगी की हकीकत सामने आई। समय से बड़ा कोई नहीं। चाहे सद्दाम हुसैन हो या फिर मुशर्रफ। अंत एक सा ही होता है। तानाशाह की प्रमुख कांटे भारत के लिए चुन चुन कर कांटे बोने वाले फौजी तानाशाह के तौर पर। (1) याद कीजिए - 2001 में करगिल की चोटियों पर 500 बहादुर भारतीय फौजियों का खून बहाने के लिए यही जनरल जिम्मेदार है। महीनों की तैयारी के साथ सादी वर्दी में पाकिस्तानी फौजी टिड्डियों की तरह करगिल की चौटियों पर काबिज हो गए थे। देर से भारत को खबर लगी - और उस वक्त चोटियों को आजाद करवाने में नाकों चने चबाने पड़ गए। ये था मुशर्रफ का बोया पहला कांटा। उस वक्त तो वो सत्ता में भी नहीं थे, नवाज शरीफ सरदार थे - लेकिन फौज और आईएसआई की लगाम मुशर्रफ के हाथों में ही थी। (2) 13 दिसंबर 2001 - भारत के दिल पर सीधा हमला, आत्मघाती हमलावरों ने

शाबाश! बिंद्रा इज्जत रख ली

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ओलंपियन अभिनव बिंद्रा तुमने लाज रख ली यार। वरना सुपर पॉवर बनने की होड़ में जुटा देश और ओलंपिक में निल बट्टे सन्नाटा। अच्छा किया तमाम संस्थानों ने लाखों और करोड़ों रुपए देकर अपना पल्ला झाड़ा। पर शर्मनाक ये है कि जो लोग कुछ भी नहीं लेकर आए उनका क्या किया जाएगा। जवाब एक ही है। अगली बार के लिए तैयारी करेंगे। पर कमी कहां रह गई, खिलाड़ियों की तरफ से या सरकार की तरफ से---न तो इसका विश्लेषण होगा और ही कोई कार्रवाई। चार साल बाद फिर से जब टीम जाने लगेगी तो खिलाड़ियों को भेजने पर राजनीति होने लगेगी। यकीन मानें तो अपने सिस्टम में ही खराबी है। अभिनव बिंद्रा गोल्ड इसलिए जीत पाया क्योंकि उसके पिता के बहुत पैसा है। उसके पिता ने अपने बेटे की ट्रेनिंग पर अबतक 10 करोड़ से ज्यादा खर्च कर दिया है। क्या झारखंड ने निकला हुआ खिलाड़ी उड़ीसा का कोई चमकता सितारा इसकी हिम्मत जुटा पाएगा। शायद नहीं। अभ्यास अपनी जगह है। पर अब ज़माना प्रोफेशनल अभ्यास का है। बिंद्रा ने कमांडो ट्रेनिंग जर्मनी में जाकर की। आम खिलाड़ी कहां से कर पाएगा। इसमें दोष किसका है? अभिनव के पापा का जिन्होंने अपने पैसे पर बेटे को ट्रेनिंग दिलाई या

न्यूज चैनल पर साईं की कृपा

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वक्त बदला। समाज बदला। लोगों की सोच में परिवर्तन आया। चीजों को देखने का नजरिया बदला। इसमें सबसे ज्यादा बदलाव आया टीवी में। खासकर टीवी न्यूज में। एकदम से उसकी परिभाषा बदल गई। चूंकि प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी इसलिए खबरें भी बदलने लगीं। फिर क्या था। चौथे स्तंभ की पूरी भूमिका पर ही सवाल खड़े हो गए। चूंकि लोग घटिया और दोयम दर्जे के नेताओं को देखकर पक चुके हैं। नेताओं के झूठे गल्प को सुन-सुनकर थक चुके हैं। इसलिए अब उन्हें कुछ ऐसा चाहिए जो उन्हें चौंकने पर मजबूर कर दे। हैरान करने वाली खबरें। सनसनीखेज स्थितियां पैदा करने वाली खबरें। अब तक जो हमारे और आपके बीच आम बातचीत में जिन बातों का जिक्र किया जाता था उससे जुड़ी खबरें। वो फिर चाहे भूतप्रेत हो। नाग नागिन हो। ईश्वर का चमत्कार हो। या फिर कुछ और हो। हर ऐसी खबरों को आम जनता देखना चाहती है। आम जनता का मतलब बुद्धिजीवी नहीं। बुद्धिजीवी का मतलब--जिनमें हर बात को नकारने की बुद्धि हो। जिनमें सकारात्मकता का पुट कम और ओढ़ी हुई बुद्धि का दिखावा ज्यादा हो। जो बुद्धि मैथुन के अलावा कुछ और करना नहीं जानते। इसलिए खासकर ऐसे लोग जो बुद्धिजीवी हैं उनमें ऐसी खबरों को न

तीन देवियां

एक नहीं, दो नहीं, तीन देवियां एक साथ तीन-तीन देवियां। तीनों का भार एक साथ एक शो में उठाने की हिम्मत बड़े बड़ों ने नहीं की। लेकिन शाज़ी साहब में वो ताक़त है, जिन्होंने बेखौफ अंदाज में तीनों के साथ बखूबी निभाया है। जिन तीन देवियों का जिक्र बार-बार किया जा रहा है वो भविष्य की तीन देवियां हैं। इनका जिम्मा है दुनियाभर के लोगों का भविष्य बताना। आज आपका दिन कैसा रहेगा? कितनी सफलता मिलेगी? मनचाहा काम कर पाएंगे या नहीं? बॉस से कितनी खटपट रहेगी? बीवी से तनाव रहेगा या नहीं? बगैरह-बगैरह। शो अच्छा है। पहले स्टार न्यूज़ का सबसे ज्यादा टीआरपी देने वाला शो था। हो भी क्यों नहीं एक साथ तीन-तीन देवियां जो हैं। एक से आपका मन भर जाए तो दूसरे को देखिए। अगर दूसरे से भी मन भर जाए तो तीसरे को देखिए। बहुत खूब जोड़ी बनाई है। क्या तिगड़ी है। लेकिन लगता है शाज़ी साहब के इस शो की टीआरपी गिरी है। देवियां वही हैं। शैली भी वही है। अंदाज भी वही है। सबकुछ वही है। संभव है पब्लिक इसलिए अब बोर होने लगी है। या तो पब्लिक को अपना भविष्य जानने में दिलचस्पी नहीं। या फिर उन देवियों में कोई दम नहीं रहा। कुछ तो बात है। वरना अचानक

लोकतंत्र नहीं नोटतंत्र

कमाल हो गया। इन नेताओं को देखकर अब शर्म नहीं आती। आनी भी नहीं चाहिए। शर्म आ गई तो इसका सीधा सा मतलब है आप किसी काम के नहीं है। मतलब ये कि आप नैतिकता, समाज और वगैरह-वगैरह की बातें करने वाले हैं। जिसका अर्थ है आप नकारे है। ठलुए हैं। हमारे कई बौद्धिक मित्र हैं। मीडिया में अच्छा प्रभुत्व रखते हैं। मठाधीश हैं। अपने लठ के बल पर मठ में काबिज हैं। उनकी राय है ठलुए लोग ही नैतिकता की बात करते हैं। जो कुंठित हो जाते हैं वही ज्ञान की सरिता बहाते हैं। या फिर वो ये भी कहते हैं कि जिनको मल उठाने का, बैग उठाने का मौका नहीं मिला वही ऐसी बाते करते हैं। बौद्धिक मित्रों की बातें बड़ी व्यावहारिक हैं। उन्हें जीवन का लक्ष्य पता है। रास्ता पता है। मकसद पता है। इसलिए वो इन घटिया, सड़ी गली सोच में विश्वास नहीं रखते। मैं बार-बार 'बौद्धिक' शभ्द का इस्तेमाल कर रहा हूं इसके पीछे भी उन मित्रों की कृपा है। बौद्धिक होने का मतलब ये नहीं कि बहुत सारी किताबें पढ़ी जाएं। बहुपठित होना बौद्धिक होना कतई नहीं है। कहां से कितना बातें टीप ली जाएं, उन चोरी की गई बातों पर कितने लेख लिख दिए जाए, बड़ी-बड़ी समीक्षाएं प्रकाशि