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मार्च 25, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

'देखना पढ़ाई में मन न लग जाए'

राहुल के कमरे का दरवाजा बंद था। हॉल में बैठे उसके पापा की नज़र अचानक दरवाज़े पर गई। अरे! राहुल का दरवाजा बंद क्यों है? इतना बोलते-बोलते वो उठे और दरवाजे के पास आए। दरवाज़ा खुला था। धीरे से दोनों दरवाज़े को अलग करते हुए अंदर की तरफ झांका। अंदर कुर्सी पर बैठा राहुल सकपकाया। क्या कर रहे हो बेटा? दरवाज़ा बंद करके अंदर क्या कर रहे थे? पापा कुछ भी तो नहीं। बस ऐसे ही बैठा था। अपने अगले क्रिकेट मैच के लिए स्ट्रैट्ज़ी बना रहा था। सोच रहा था कि कैसे खेला जाए कि पहले से बेहतर किया जाए। ठीक है बेटा। सोचो, सोचो। मुझे अच्छा लगा कि खेल के बारे में ही सोच रहे हो। एक सेकेंड के लिए तो तुमने मुझे डरा ही दिया था.....नहीं नहीं छोड़ो। इतना कहकर वो बाहर आ गए। क्या हो गया? बच्चे पर किस बात के लिए शक कर रहे थे? अपने ही बेटे पर हर समय शक करना अच्छा नहीं है। क्या कर रहे हो? ये मत करो, ये करो। अरे छोड़िए न जो मन में आए उसे करने दीजिए न। नाहक ही परेशान रहते हैं। अरे! नहीं मैं बस ये देख रहा था कि पढ़ाई तो नहीं करने लगा। बस मुझे इसी बात का डर रहता है कि राहुल कहीं किसी दिन ये न कह दे कि पापा मुझे पढ़ाई में मज़ा आता