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सामाजिक परिवर्तन के नए स्रोत

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सर(प्रोफेसर नित्यानंद तिवारी--पूर्व अध्यक्ष, हिंदी विभाग...दिल्ली विश्वविद्यालय, प्रख्यात समालोचक) के साथ यह बातचीत इस दशक में प्रकाशित उपन्यासों में लगातार बदलते चरित्रों और उनका सामाजिक परिवर्तन के स्रोत को ध्यान में रखकर की गई है। सुधा-- सर, अब इतनी विवेचना के बाद, तमाम उठा-पटक और जांच पड़ताल के बाद हम वास्तविक राजनीति किसे कहें? सर--- वस्तुत: सामाजिक परिवर्तन के नए स्रोतों से उभरी हुई राजनीति ही वास्तविक राजनीति है। मोटे तौर पर इसके दो प्रमुख स्रोत हैं---(1) समाज का दलित वर्ग और (2) स्त्री वर्ग। ये दोनों स्रोत समाज के सबसे अधिक दलित, शोषित समुदाय है। इनमें परिवर्तन करते हुए सामाजिक संरचना का बदलाव या सामाजिक संरचना में बदलाव लाना यदि शुरु होता है तो राजनीति का वास्तविक रुप यही होगा। सुधा— सर, इन दोनों स्रोतों को अपने-अपने हित में हथियाने की राजनीति भी तो हो सकती है? सर-- हां, ऐसा देखा गया है कि दलित औऱ स्त्री इन दोनों स्रोतों का इस्तेमाल केवल राजनीतिक सत्ता पाने के लिए किया जाए तो वह राजनीतिक पाखंडपूर्ण हो सकती है। मुख्यरुप से सामाजिक परिवर्तन और नई सामाजिक स

'मेरे अंदर का एक कायर टूटेगा'

कुछ तो होगा कुछ तो होगा अगर मैं बोलूंगा न टूटे न टूटे तिलस्म सत्ता का मेरे अंदर का एक कायर टूटेगा टूट मेरे मन टूट अब अच्छी तरह टूट झूठ मूठ मत अब रूठ---रघुवीर सहाय सहाय जी ये पंक्तियां ज़िंदगी के लिए रामबाण की तरह है। सत् प्रतिशत मन को शांति मिलती है। अगर ध्यान से पढ़ें और अमल करें तो कम से कम मन की परेशानियां तो ज़रूर दूर होती हैं। लेकिन दिक्कत ये है कि लोग जानने समझने के बाद भी कुछ नहीं बोलते। मुक्तिबोध हमेशा ऐसे लोगों के खिलाफ लिखते रहे। पाश ने कहा था-बीच का रास्ता नहीं होता। बस सच यही है अगर ग़लत है तो ग़लत और सही है तो सही। पर लोग कहां ऐसा करते हैं। अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दीजिएगा।

ए महाराज कौन किसको बदलता है ?

मुझे याद नहीं कि बदलते हालात में कौन किसको बदल रहा है---वक्त ने हमें बदला है या हम हालात के मारे हैं। कुछ तो ऐसा हो गया है जिसे देखकर पहले हमारे और आपके जेहन में खून खौलने लगता था अब उसे इग्नोर माकर आगे चल देते हैं। जिसके लिए पहले हम घंटों मशक्कत करते थे अब उसपर ध्यान भी नहीं देते। लगता है कौन किसके लिए करता है। अगर मेरे साथ ऐसा हो जाएगा तो कौन आएगा सामने। बस हम निकल जाते हैं उससे आगे। कल की बात है। सड़क पर एक बाइक वाले का एक्सिडेंट हुआ। दर्द से कराहता रहा। लोग आसपास से गुजरते रहे। पर किसी ने रूककर उसे उठाने की जहमत नहीं ली। मैं भी उन्हीं में से एक था। ऑफिस जाने में पहले से ही देर हो गई थी। और फिर ये भी लगा कि अगर यहां रूक जाऊंगा तो बॉस को लगेगा नए तरीके का एक और झूठ। आखिर क्या करत। गाड़ी वहां से ऐसे निकाली जैसे मैंने कुछ नहीं देखा। कमोबेश हम सब की यही हालत है। हम तमाम तरह की बड़ी बातें करते हैं। तमाम बड़े विषयों पर ब्लॉग लिखते हैं। बुद्धिजीवी कहलाते हैं पर सब दिखावा। मुफ्त में ज्ञान देने का अवसर मिले तो न जाने कितने समय होते हैं हमार पास। पर जब किसी की मदद के लिए समय निकालने की बात की

हुसैन और तसलीमा में फर्क़

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मकबूल फिदा हुसैन कलाकार हैं। तसलीमा नसरीन भी कलाकार हैं। हुसैन का जन्म भी मुस्लिम परिवार में और तसलीमा का भी मुस्लिम परिवार में जन्म। लेकिन हुसैन साहब भारत को अलविदा कह गए और तसलीमा भारत को अपना दूसरा घर मानती हैं। दोनों में भारत को लेकर जो नजरिया है उसमें आसमान ज़मीन का अंतर है। दोनों में सबसे बड़ा मानसिकता का है। हुसैन के लिए अगर कोई ये कहता है कि कलाकार को आज़ादी मिलनी चाहिए और उसे उसकी इच्छाशक्ति के आधार पर काम करने देना चाहिए। इस तर्क से मैं कतई सहमत हूं। जाहिर है अगर कलाकार प्रगतिशील है तो वो समाज और समय को कुछ ऐसा देने की कोशिश करेगा, जिससे आम जनता को भी फायदा हो। हुसैन कितने प्रगतिशील रहे हैं ये तो शायद वही जानते होंगे पर अकसर जब वो हिंदू देवियों के जिस्म को अपनी तस्वीर में जगह देते हैं तो उनके कपड़े उतरने लगते हैं। याद रहे हुसैन ने शायद ही कभी किसी और धर्म के साथ खिलवाड़ किया हो। मुस्लिम धर्म से खिलवाड़ की तो उनकी हिम्मत ही नहीं। उन्हें पता है अगर वो ऐसा करेंगे तो मोटे पैसे वाले गल्फ देशों के शेख उनकी तस्वीरों की मुंह मांगी कीमत कैसे देंगे। जाहिर है हुसैन पहले मधुबाला और बाद म

बिंदास का इमोशन अत्याचार

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इंटरटेनमेंट टीवी बिंदास वाकई बिंदास है। उस पर इन दिनों एक खास शो बड़ा पॉपलर है। इमोशनल अत्याचार। शब्द भले ही अनुराग कश्यप की फिल्म देव डी के गाने से लिया गया हो पर इसमें दिखाई जाने वाली कहानी बिलकुल अलग कलेवर की है। अगर आपको अपनी प्रेमिका या अपने प्रेमी पर शक है तो बिंदास टीवी के पास आपका इलाक है...वो अपने अंडर एजेंट जो पेशेवर तौर पर प्यार का नाटक कर आपकी गर्ल फ्रेंड के पास जाएंगे उसे रिझाने की कोशिश करेंगे अगर आपकी गर्लफ्रेंड उसकी शक्ल सूरत और बिंदास की तरफ से मुहैया कराई गई गाड़ी पर रिझ गईं तो फिर समझिए आप कम से कम अपनी इस गर्ळ फ्रेंड के साथ आगे की जिंदगी की प्लानिंग नहीं कर सकते। नाटकीय तरीके से तीन चार स्पाई कैम से शूट कर वो सारी चीजें दिखा जाते हैं जिसे देखने के लिए अकसर आदमी टीवी देखता है। कम कपड़े, चूमते चाटते सीन और फिर गंदी बातें। और शो के आखिर में एक सीन जरूर ऐसा आता है कि अजीब इत्तेफाक से अचानक दूसरे के प्यार में पागल हो गए प्रेमी या प्रेमिका उसी बिल्डिंग में होते हैं जहां स्टूडियो होता है और जहां पर बिठाकर एक शख्स को उसके दोस्त की असलियत का पर्दाफाश किया जाता है। बिंदास टीव

क्या सचमुच कविता एक सैल्फिश विधा है ?

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हंस के नवंबर अंक के संपादकीय में राजेंद्र यादव लिखते हैं-"कविता की सारी संभावनाएं निचोड़ी जा चुकी हैं। वहां नया करने के लिए कुछ भी नहीं। सामान्यीकरण की प्रक्रिया में अपने असली व्यक्तिगत को छिपाया जा सकता है। कविता एक सैल्फिश विधा है। कविता में स्रोत और संदर्भ आप स्वयं होते हैं। और उम्मीद करते हैं कि पाठक आपके कहे के साथ साधारणीकरण कर ले।" माफ कीजिएगा राजेंद्र जी, मैं आपके इस तर्क से असहमत हूं। मेरी छोटी सी बुद्धि तो इतना ही समझ पायी है कि कविता जैसी लोकतांत्रिक विधा ना तो जन्मी है ना जनमेगी। वह पर्सनल तो कतई नहीं होती। वह उतनी ही सामूहिक या कह लें सामाजिक जितनी की इस दौर की कहानियां। आपने शायद कविता की धार को अपने जीवन में अनुभव ही नहीं किया। गनीमत है गद्य के बहाने कहानी को कम करके नहीं आंका। कहानी तो तर गई आपके इतना भर कह देने से कि 'गद्य' में संदर्भ 'दूसरे' होते हैं। अपने को अपने आप से तोड़कर दूसरों में घुलाना पड़ता है और व्यापक सामाजिक संबंधों के माध्यम से अपनी बात कहनी पड़ती है। राजेंद्र जी शायद आप इधर कुछ नया नहीं पढ़ रहे वरना इधर जो नई कविताएं लिखी जा रह